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ता स॑वि॒तुर्वरे॑ण्यस्य चि॒त्रामाहं वृ॑णे सुम॒तिं वि॒श्वज॑न्याम्। याम॑स्य॒ कण्वो॒ अदु॑ह॒त् प्रपी॑ना स॒हस्र॑धारां॒ पय॑सा म॒हीं गाम् ॥७४ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ताम्। स॒वि॒तुः। वरे॑ण्यस्य। चि॒त्राम्। आ। अ॒हम्। वृ॒णे॒। सु॒म॒तिमिति॑ सुऽम॒तिम्। वि॒श्वज॑न्याम्। याम्। अ॒स्य॒। कण्वः॑। अदु॑हत्। प्रपी॑ना॒मिति॒ प्रऽपी॑नाम्। स॒हस्र॑धारा॒मिति॑ स॒हस्र॑ऽधाराम्। पय॑सा। म॒हीम्। गाम् ॥७४ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:17» मन्त्र:74


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब कौन ईश्वर को पा सकता है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जैसे (कण्वः) बुद्धिमान् पुरुष (अस्य) इस (वरेण्यस्य) स्वीकार करने योग्य (सवितुः) योग के ऐश्वर्य के देनेहारे ईश्वर की (याम्) जिस (चित्राम्) अद्भुत आश्चर्य्यरूप वा (विश्वजन्याम्) समस्त जगत् को उत्पन्न करती (प्रपीनाम्) अति उन्नति के साथ बढ़ती (सहस्रधाराम्) हजारों पदार्थों को धारण करनेहारी और (सुमतिम्) यथातथ्य विषय को प्रकाशित करती हुई उत्तम बुद्धि तथा (पयसा) अन्न आदि पदार्थों के साथ (महीम्) बड़ी (गाम्) वाणी को (अदुहत्) परिपूर्ण करता अर्थात् क्रम से जान अपने ज्ञानविषयक करता है, वैसे (ताम्) उसको (अहम्) मैं (आ, वृणे) अच्छे प्रकार स्वीकार करता हूँ ॥७४ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे मेधावीजन जगदीश्वर की विद्या को पाकर वृद्धि को प्राप्त होता है, वैसे ही इसको प्राप्त होकर और सामान्य जन को भी विद्या और योगवृद्धि के लिये उद्युक्त होना चाहिये ॥७४ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ क ईश्वरं प्राप्तुं शक्नोतीत्याह ॥

अन्वय:

(ताम्) वक्ष्यमाणाम् (सवितुः) योगैश्वर्य्यसंप्रदस्येश्वरस्य (वरेण्यस्य) वरितुमर्हस्य (चित्राम्) अद्भुतविषयाम् (आ) (अहम्) (वृणे) स्वीकुर्वे (सुमतिम्) शोभनां यथाविषयां प्रज्ञाम् (विश्वजन्याम्) या विश्वमखिलं जगज्जनयति प्रकटयति ताम् (याम्) (अस्य) (कण्वः) मेधावी (अदुहत्) परिपूरयति (प्रपीनाम्) प्रवृद्धाम् (सहस्रधाराम्) सहस्रमसंख्यानर्थान् धरति तां सर्वज्ञानप्रदाम् (पयसा) अन्नादिना (महीम्) महतीम् (गाम्) वाचम्। गौरिति वाङ्नामसु पठितम् ॥ (निघं०१.११) ॥७४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - यथा कण्वोऽस्य वरेण्यस्य सवितुरीश्वरस्य यां चित्रां विश्वजन्यां प्रपीनां सहस्रधारां सुमतिं पयसा महीं गां चादुहत्, तथा तामहमावृणे ॥७४ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा मेधावी जगदीश्वरस्य विद्यां प्राप्यैधते तथैवैतां लब्ध्वाऽन्येनापि विद्यायोगवृद्ध्यै भवितव्यम् ॥७४ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे बुद्धिमान लोक परमेश्वराची विद्या प्राप्त करून उन्नती करतात तसे सामान्य लोकांनीही विद्या व योगवृद्धीसाठी तत्पर राहावे.